छद्म बहसों में गुम गंभीर मुद्दे

भारत एक बहस प्रधान देश है। यहाँ चाय दुकानों पर सुबह के अखबार से लेकर रात में टेलीविजन के प्राइम टाइम तक बहस का सिलसिला जारी रहता है। यह बहसें निर्गुण स्वभाव की होती हैं। इन छद्म बहसों का कभी कोई सरोकार नहीं होता।

भारत एक बहस प्रधान देश है। यहाँ चाय दुकानों पर सुबह के अखबार से लेकर रात में टेलीविजन के प्राइम टाइम तक बहस का सिलसिला जारी रहता है। यह बहसें बहुत दार्शनिक टाइप की होती हैं। साथ ही, निर्गुण स्वभाव की भी होती हैं।

इन बहसों के मुद्दे गन्ने की तरह होते हैं। कुछ की मियाद एक या दो दिन की होती है तो कुछ हफ्ते भर भी खिंच जाती हैं। जब तक मुद्दे में मीठा रस है तब तक बहस है। कोई एक गन्ना लाकर सजाता है। दो अलग से दिखने वाले लेकिन एकसमान जमातों को बुलाता है। गन्ने के दोनों छोर से दोनों जमातें अपने काम में लग जाती हैं। कभी किसी को जड़ वाला हिस्सा मिलता है तो कभी फुनगी वाला। अपने अपने हिसाब से सब रस निकालने लगते हैं। बहस की महफिल जम जाती है।

थोड़ा-सा समय निकाल कर एक प्रयोग कीजिए। पिछले एक महीने में होने वाली प्राइम टाइम बहसों के मुद्दे देखिए। और फिर मनन कीजिए कि इन बहसों ने राष्ट्र निर्माण में क्या सहयोग किया। इन बहसों से कितनी गंभीर समस्यायें देश के सामने आ सकी और उनके समाधान पर गंभीर विमर्श हो सका। हालांकि जब ये बहसें ‘ज्वलंत’ बनी चलाई जा रही थी तो सच में लगता था कि कितना महत्वपूर्ण है। लेकिन, थोड़ा ठहरकर उसके रोमांच और आडंबर से बाहर निकल कर सोचिए। पूरी बहस एक प्रहसन नजर आएगी। कुछ किरदार आते हैं, पटकथा तैयार होती है, क्या खूब अदाकारी और निर्देशन होता है। हम निश्चिंत होकर सो जाते हैं कि चलो मुद्दा सुलट गया।

इन छद्म बहसों का कभी कोई सरोकार नहीं होता। पैकेज होता है, वही चलता है जो बिकता है। मुद्दों की गंभीरता से बहस का नाता नहीं होता, उसकी विक्रय-क्षमता का होता है।

किसान मर रहे हैं, सूखा लोगों की जान ले रहा है, लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, गाँव का गाँव पलायन कर रहा है, लेकिन यह बहस का मुद्दा नहीं है। यह मुद्दा बिकने वाला नहीं है। इस मुद्दे पर दोनों जमातें एक ही पाले में हैं। इस पर बहस करा भी दिया तो महफिल नहीं जमेगी। बहस का रोमांच नहीं आएगा। ये भी भला कोई मुद्दा है!

बहस के मुद्दे तड़कते-भड़कते होने चाहिए। जिसमें दो जमातों के बीच गुत्थमगुत्थी हो सके। देखने वाले लोग अपने-अपने हिसाब से एक-एक जमात चुन लें और वो आपस में भिड़ें। ट्विटर पर जमकर ‘हैशटैग’ चले। लोग एक दूसरे पर टूट पड़ें। एक दूसरे का खूब मजा लें। तभी तो बहस की ‘इंटेंसिटी’ बढ़ेगी। तभी बहस सफल है!

किसान, खेती-किसानी, गाँव, ये सब कोई मुद्दा है। किसान ट्विटर पर आकर लड़ सकते हैं क्या? नहीं न! फिर कैसे चलेगा यह मुद्दा। लोगों की शाम खराब करनी है क्या!

सूखा और पानी के संकट के मुद्दे को उठाना है तो पहले लोगों को उठाना होगा। जन आंदोलनों और संगठन के जरिए जनजागरण का काम करना होगा। समाज अगर जाग गया तो मीडिया भी जागेगी और सरकारें भी। छद्म मुद्दों में गुम है गंभीर मुद्दे। इस छद्म को तोड़ना होगा। यह काम लोकबल ही कर सकता है। लोकबल को जगाने की जरूरत है, लोकबल ही सबसे बड़ी आशा है!

[Note : This is published on Express Today first.]

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