पानी रे! पानी, तेरा रंग कैसा ?

अचानक लातूर खबरों में छा गया है। रेल से पानी पहुँचाया जा रहा है। महाराष्ट्र में जल-संकट के बनिस्बत आईपीएल आ जाता है। लातूर से ही सटे महाराष्ट्र के बीड जिले की ११ वर्षीय योगिता पानी भरते समय ही मर गई। घर के लिए पानी लाने गई योगिता के शरीर का पानी सूख गया था।

देश भर में सूखा पसरा है। गहरा जल संकट है। देश सोया था, अब जागा है। जागा है या बस कुनमुना रहा है! देश में कई सरकारे हैं केंद्र से लेकर राज्य तक। सब सोई थीं। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगी तो कोर्ट ने सरकारों को फटकारा। सरकारें हैं कि जूँ नहीं रेंगती।

अचानक लातूर खबरों में छा गया है। रेल से पानी पहुँचाया जा रहा है। महाराष्ट्र में जल-संकट के बनिस्बत आईपीएल आ जाता है। लातूर से ही सटे महाराष्ट्र के बीड जिले की ११ वर्षीय योगिता पानी भरते समय ही मर गई। घर के लिए पानी लाने गई योगिता के शरीर का पानी सूख गया था।

पिछले तीन सालों में मानसून लगातार रूठा रहा। सूखा गहराता रहा और उसका प्रभाव बद से बदतर होता रहा। सूखा अपने साथ कुपोषण लाया है। पीने का साफ पानी नहीं है तो कई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। किसानों के आत्महत्या की खबरें रोज ही आ रही हैं। आँकड़े भयावह होते जा रहे हैं। बुंदेलखंड और मराठवाड़ा सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।

सूखा पलायन भी ले आया है। रोजी-रोटी की तलाश में लोग गाँव से शहर की ओर भाग रहे हैं। शहर पहले से अटे पड़े हैं और कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। भीड़ बढ़ती जा रही है।

भारत की आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा, यानि लगभग 33 करोड़ लोग सूखा से प्रभावित हैं। 10 राज्यों में सूखा घोषित है। देश के 675 जिलों में से 256 जिले यानि कुल 2,55,923 गाँव सूखा की चपेट में हैं। ये सारे सरकारी आँकड़े हैं जो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्वराज अभियान की ओर से दायर सूखा राहत याचिका की सुनवाई में पेश किए हैं।

भारत पीने के पानी और सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का उपभोग करता है। इसमें से लगभग एक तिहाई भूजल केंद्र ‘अत्यधिक दोहन’ की श्रेणी में आते हैं। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार देश के 91 बड़े जलाशयों में मात्र 23 फीसदी पानी बचा है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी हालात और खराब होंगे।

खेती-किसानी का संकट हो या पानी का संकट समाज और सरकार के लिए सामान्य-सी बात हो गई है। अपनी गलतियों से सीखने के बजाए हम उन गलतियों को दोहराते रहते हैं।

आज जो संकट की स्थिति बनी है इसका अंदेशा पहले से था। बार-बार चेताया जा रहा था। लेकिन सरकारें न जाने किस उम्मीद में बेपरवाह बैठी थीं। अब जब संकट चौखट पर है तो सबकी आँखें खुली हैं।

मौजूदा जल संकट प्राकृतिक से ज्यादा मानव-निर्मित है। हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना भूल गए हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते जा रहे हैं। संरक्षण की भावना ही समयातित लगती है। समाज और सरकार दोनों रूप में हम उदासीन हो गए हैं।

पर्यावरण की चिंता आर्थिक सुधारों के भार में कहीं दब-सी गई है। आज के दौर में पर्यावरण की बात करना भी विकास के विरोध में समझा जाता है। न जाने हम किस तरह का विकास चाहते हैं। आज परिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को समग्र रूप में समझने की जरूरत है। दोनों का साथ चलना जरूरी है, तभी सही मायने में विकास संभव है।

अब सबकी निगाहें आने वाले मानसून पर टिकी हैं जिसके इस बार अच्छा होने का पूर्वानुमान है। संकट शायद कुछ दिनों के लिए टल जाए। लेकिन न तो हम इससे सबक लेने वाले और न ही भविष्य में दोबारा ऐसी स्थिति आने पर निपटने के लिए तैयार होंगे। कहीं पानी का दुरुपयोग जारी रहेगा तो कहीं पानी के लिए तरसते लोग होंगे। आज योगिता पानी के लिए मरी, कल कोई और होगा। मृत संवेदनाओं का दौर है!

[Photo Credit : Wikipedia]