पानी : बुनियादी मानवीय हक़ या व्यापार के वस्तु?

मानव सभ्यता के एतना तरक्की के बादो हमनी के अभी तक खाना आ पानी के व्यवस्था ठीक से
ना कर सकल बानी। हमनी के विकास करतानी कि गर्त में जात बानी?

मूल प्रकाशन : आखर, भोजपुरी ई-पत्रिका, जून 2016

“प्यास के अर्थशास्त्र” – इहे शीर्षक रहे पी. साईंनाथ जी के वक्तव्य के। पी. साईंनाथ जी जानल मानल ग्रामीण पत्रकार हईं। सूखा पर एगो बेहतरीन आ ज्ञानवर्धक किताब, ‘एवरीबॉडी लव्स इ गुड ड्राउट’, इंहा के लिखले बानी। इ किताब हिंदी में ‘तीसरी फ़सल’ के नाम से आइल बा।

पिछला महीना के बात ह, स्वराज अभियान आ सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के संयुक्त प्रयास से दिल्ली में ‘सूखा पर राष्ट्रीय विमर्श’ भईल। सूखा राहत खातिर स्वराज अभियान द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एगो जनहित याचिका दायर कईल गईल रहे। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसला आईल। ‘जिये के अधिकार’ लोग के संवैधानिक अधिकार ह आ सरकार के जिम्मेवारी बा इ सुनिश्चित कइल। सूखा से तत्काल राहत खातिर मनरेगा, खाद्य सुरक्षा आ मिड दे मील से जुडल कए गो आदेश अदालत के फ़ैसला में आईल। ‘सूखा पर राष्ट्रीय विमर्श’ के उद्देश्य रहे आगे के दिशा आ कार्यक्रम तय कइल।

एह विमर्श में खाद्य आ कृषि विश्लेषक देविंदर शर्मा, सीएसई के सुनीता नारायण, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. सुनीलम, ग्रामीण पत्रकार पी. साईंनाथ, स्वराज अभियान के जय किसान आन्दोलन के सह-संयोजक अभीक साहा, जय किसान आन्दोलन के संयोजक योगेन्द्र यादव आ आउर कए गो पत्रकार, बुद्धिजीवी आ अलग-अलग राज्य से आईल कार्यकर्त्ता लोग मौजूद रहे। बहुत तरह के बात भइल, सुझाव आईल। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला के प्रति लोग के जागरूक कईल जाव आ इ प्रभावी ढंग से जमीन पर उतरे एह उद्देश्य से सूखा के दू गो सबसे बड़ केंद्र – मराठवाड़ा आ बुंदेलखंड – में 10 दिन के ‘जल-हल पदयात्रा’ के रूपरेखा तैयार भइल।

खैर, इ त कार्यक्रम के भूमिका भइल। हम बात करे के चाहतानी पी. साईंनाथ जी के वक्तव्य पर जवना के जिक्र सबसे ऊपर कईले बानी। पानी के संकट से जुड़ल एगो बड़ा अहम् सवाल पी. साईंनाथ जी उठवनी। उहाँ के सवाल बा कि हमनी के तय करे के पड़ी कि “पानी बुनियादी मानवीय हक़ ह कि व्यापार के कवनो चीज?” इ एगो बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न बा!

पानी के संकट राष्ट्रीय खबर बनल जब महाराष्ट्र में आईपीएल ना करावे के केस बाम्बे हाई कोर्ट में भइल। एक तरफ पानी के हाहाकार बा त दूसरा तरफ बहुत ज्यादा पानी स्टेडियम के रखरखाव में जाला। चूँकि आईपीएल जुड़ल रहे त इ खबर चलल। एह वजह से सूखा आ पानी के संकट कुछ दिन ला देश के सामने आइल। अब साईंनाथ जी के सवाल पर विचार करीं। पानी अगर व्यापार के चीज ह त जेकरा पास पैसा होई ओकरा मिली।

एह के दोसरा तरीका से समझल जाव। महाराष्ट्र के एगो जिला ह लातूर। कुछ दिन बड़ा चर्चा में रहल। पानी के संकट एतना बढ़ गईल कि ट्रेन से टैंकर भेजे के पड़ल। ‘जल-हल पदयात्रा’ के शुरुआत उहें से भईल रहे। उहाँ से खबर इ बा कि अगर रऊआ पानी मांगेम त पानी मिल जाइ। लेकिन इ पानी मुफ्त नइखे। कई गुना दाम पर खरीदे के पड़ी। पानी आ प्यास के धंधा खुल गईल बा। पानी, बोरवेल, टैंकर, बोतल वाला पानी, इ सबके बहुत बड़ा नेटवर्क बा। पानी के आगे-पीछे बहुत बड़ा धंधा कई साल से खुल गईल बा। सरकारी पानी के टैंकर गाँव में 15-20 दिन में एक हाली आवेला, उहो 1-2 घंटा ला। अब जे खाना ला रोज जोहत होखे ऊ पानी ला पैसा कहाँ से लियाई! एकरे के पी. साईंनाथ जी कहतानी ‘प्यास के अर्थशास्त्र’।

मराठवाड़ा के छोड़ीं, अबकी चैती छठ के फोटो छपरा के हमरा गाँव से आइल रहे। बड़का पोखरा में तनिको पानी ना रहे। मोटर से पानी डाल के छठ भईल। घर में 20 लीटर बोतल वाला पिए के पानी आवे लागल बा। पानी के प्लांट सब खुल गईल बारी स। लोग आरओ लगवावे लागल बा। बहुत पुरान बात ना ह कि कुआँ से पिये के पानी हमनी के मिल जात रहे। फेर हैंडपम्प आ गईल। अब मोटर आ ‘वाटर प्यूरीफायर’ लगावे के पड़ता। कई जगहा से पानी में आर्सेनिक के शिकायत बा। अब सोचीं कि जेकरा पास पैसा बा ऊ त सब व्यवस्था क लेता लेकिन रोज कमाए आ खाए वाला खाना के व्यवस्था करो कि पानी के!

त सवाल इ बा कि मानव सभ्यता के एतना तरक्की के बाद भी हमनी के अब तक खाना आ पानी के व्यवस्था ठीक से ना कर सकल बानी। वैसे त विकास के अंध माहौल में पर्यावरण के बात कईल भी गुनाह बा लेकिन तनी सोचीं, हवा में प्रदूषण से सांस लेहल मुश्किल बा, प्राकृतिक पानी पिये लाईक नइखे रह गईल, अनाज-साग-सब्जी सब केमिकल वाला हो गईल बा। प्रश्नचिह्न के साथ ही हम आपन बात खतम करतानी। हमनी के विकास करतानी कि गर्त में जात बानी?

[फोटो साभार : जयति साहा, स्वराज अभियान]

यह सूखा संवेदनाओं का है

देश में यह भयानक सूखा सिर्फ बारिश न होने की वजह से नहीं पड़ा है. इसलिए बारिश से इसका अंत हो जाएगा, यह मानना एक गलतफहमी है

(मूल प्रकाशन : सत्याग्रह, 3 जून, 2016)

संवेदना संकल्प को जन्म देती है। संकल्प से सामर्थ्य आता है। संवेदना और संकल्प के बिना सामर्थ्य अर्थहीन है। देश भयानक सूखे और जल संकट से जूझ रहा है। केंद्र सरकार दिल्ली में अपनी उपलब्धियों का जश्न मना रही है। राज्य सरकारें के भी अपने-अपने महोत्सव हो रहे हैं। देश के चुने हुए नुमाईंदों की असंवेदनशीलता का इससे बड़ा प्रदर्शन क्या होगा!

सूखे और जल संकट की गंभीरता बताने की जरूरत नहीं है। न ही यह कि इस वक्त का तकाजा क्या होना चाहिए। लेकिन हाल यह है कि लोगों के ‘जीने का संवैधानिक अधिकार’ सुनिश्चित करने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत को स्थिति में दखल देते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश देने पड़े हैं।

खाद्य और कृषि विश्लेषक देविंदर शर्मा सन् 1965 का वाकया याद दिलाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री तब प्रधानमंत्री थे। सूखे का साल था और भारत तब बाहर से खरीदे गए अनाज पर निर्भर था। शास्त्री जी ने पूरे देश से सोमवार को उपवास रखने की अपील की। इससे भूख की समस्या तत्काल खत्म नहीं हो गई, लेकिन जो संकट में थे उनको ढाढस जरूर मिला कि देश उनकी फ़िक्र कर रहा है और अपना एक दिन का खाना उनसे साझा कर रहा है। यह मानवीय संवेदना जरूरी है!

सूखे की समस्या यह नहीं है कि देश में मानसून कमजोर रहा है। सबसे बड़ा कारण है जल प्रबंधन का नहीं होना और तथ्यात्मक अध्ययन व सही नीतिगत योजनाओं का अभाव। हर साल सितंबर के ख़त्म होते ही बारिश का आकलन आ जाता है। यह बता दिया जाता है कि कहां कितना पानी बरसा और ज्यादा बरसा कि कम। यानी अक्टूबर से समाज एवं सरकार को सब पता था। लेकिन एक चीज जो नहीं थी तो वह थी आने वाले संकट से निपटने की तैयारी। आज संकट सिर पर खड़ा है।

मौसम विभाग कह रहा है कि इस साल बारिश जल्दी आएगी। अच्छी बारिश होने की सम्भावना है। तो क्या बारिश हो जाने भर से सूखे का संकट ख़त्म हो जाएगा? इसे समझने की जरूरत है। सूखा राहत और जल संकट के मुद्दे को लेकर हाल ही में मराठवाड़ा और बुंदेलखंड की 10 दिवसीय जल-हल पदयात्रा करने वाले योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘बारिश अगर अच्छी हुई तो दो फायदे होंगे। एक, पीने के पानी का जो संकट है वह दूर हो जायेगा। दो, किसान नई फ़सल लगा सकेगा। हरी घास उग आएगी और पशुओं के चारे की समस्या दूर हो सकेगी। लेकिन, इससे सूखे का संकट अभी दूर नहीं होगा।’ स्वराज अभियान द्वारा चलाए जा रहे जय किसान आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक यादव आगे जोड़ते हैं, ‘फसल को तैयार होने में कम-से-कम छह महीने लगेंगे। तब तक स्थिति नहीं बदलने वाली। दूसरी बात, अभी जो भी कंस्ट्रक्शन या दूसरे तरह के काम लोगों को मिल रहे हैं, बारिश के बाद ये भी बंद हो जायेंगे। तो यह कहना गलत होगा कि बारिश के बाद सूखे का संकट ख़त्म हो जाएगा। अगले छह महीने तक हमें इस पर नज़र रखने की जरूरत है।’ यानी सिर्फ़ बारिश का हो जाना सूखे के संकट का अंत नहीं है।

मानसून और बारिश का दूसरा पहलू है – जल संरक्षण। सवाल यह है कि मानसून के दौरान बारिश के जल को संरक्षित करने की हमारे पास क्या योजनाएं हैं। जाहिर सी बात है, अगर बारिश ज्यादा होगी तो कई जगह बाढ़ की स्थिति बनेगी। क्या उससे निपटने के लिए कोई अध्ययन या योजना है? या यह काम जब होगा तो निपटा जाएगा वाले ढर्रे पर ही चलता रहेगा? जल संरक्षण को लेकर अपने काम के लिए चर्चित राजेंद्र सिंह कहते हैं, ‘भारत में सूखा मानवजनित है। इसकी वजह है जल सुरक्षा को लेकर भारत सरकार का गंभीर न होना। हमारे पास रिज़र्व पुलिस है, रिज़र्व सेना है, लेकिन रिज़र्व पानी नहीं है। यह सबसे बड़ी नीतिगत खामी है।’

पिछले महीने दिल्ली में स्वराज अभियान और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने ‘सूखे पर राष्ट्रीय विमर्श’ का आयोजन किया था। इसमें वरिष्ठ पत्रकार पी साईंनाथ बार-बार इस बात को रेखांकित कर रहे थे कि सूखा तात्कालिक घटना नहीं है जो कमजोर मानसून की वजह से हो गया है, सबसे बड़ा संकट पानी का है। पानी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चरित्र को समझने की जरुरत है। ‘प्यास के अर्थशास्त्र’ को समझाते हुए उनका सवाल था, ‘हमें यह तय करना होगा कि पानी एक बुनियादी मानवीय अधिकार है या कोई व्यापार की वस्तु?’ यह हमारी नीतियों और योजनाओं पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है।

दरअसल सूखा महज ‘सूखा’ नहीं है। यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक त्रासदी है। समाज का ताना-बाना टूट रहा है। ग्रामीण भारत और शहरी भारत के बीच की खाई बढती जा रही है। एक तरफ अधिकतम जल-व्यय की जीवनशैली है तो दूसरी ओर प्यास से तड़पते लोग हैं। छोटे किसान भूमिहीन मजदूर बनते जा रहे हैं। बहुत बड़े पैमाने पर गांव से शहरों की ओर पलायन हो रहा है। लोग अपनी संस्कृति से दूर जा रहे हैं, परम्पराएं ख़त्म हो रही हैं और कुछ नव-सृजन नहीं हो रहा है। गांव से शहर की ओर भाग रहे लोगों की जिंदगी और बेहाल हो जाती है। शहरों के पास इन्हें समायोजित कर सकने की कोई योजना नहीं है। यानी एक बड़ी आबादी को अजीब से भंवर में उलझा दिया गया है।

सवाल उठता है कि समाधान क्या है? समाधान की बात सोचने के लिए सबसे पहले जरूरी है–स्वीकार्य और संवेदनशीलता। तभी सरकार स्थिति की गंभीरता को समझ पाएगी और इससे निपटने के लिए सार्थक पहल कर सकेगी। दूसरा काम जो युद्ध स्तर पर करने की जरूरत है, वह है सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करना। इससे सूखा पीड़ित लोगों को त्वरित राहत मिलेगी और सूखे को अकाल में बदलने से रोका जा सकेगा। तीसरी प्राथमिकता भविष्य के किए दूरगामी नीतियां और व्यापक योजनाएं होनी चाहिए। प्रतिक्रियाशील होने के बजाय अग्रसक्रियता दिखानी होगी। जल संरक्षण के स्थानीय उपायों और परम्परागत तरीकों को पुनर्जीवित करना होगा। स्थानीय अनुकूलता के आधार पर खेती-प्रणाली को बढ़ावा देना होगा। जल सम्बन्धी नीति-निर्धारण एवं योजनाओं में स्थानीय समुदाय को शामिल करना होगा।

चौथी और सबसे महत्वपूर्ण बात, यदि सरकार संवेदनशील हो और सूखे और पानी के इस संकट से निपटने का संकल्प कर ले तो उसके पास सामर्थ्य की कमी नहीं है। जरुरत है तो बस दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की। क्या मौजूदा सरकार में वह दृढ़ राजनितिक इच्छाशक्ति है?

[Photo Credit : PTI]

 

जल और हल

नहीं! मैंने आत्महत्या नहीं की है, जिंदा हूँ!
जल बरसेगा तो अपने खेतों में हल चलाना है,
फसल उगानी है, कर्ज उतारने हैं।

मैं किसान हूँ!
हल चलाता हूँ, अन्न उगाता हूँ।

ट्रैक्टर हैं, बोरवेल है,
बीज, यूरिया, कीटनाशकों के लिए
बैंकों का कर्ज भी है।
लेकिन,
अब बोरवेल से पानी नहीं आता;
कहते हैं, पानी नीचे चला गया है।

दो बरस से पानी नहीं बरसा!
फसल सूख गई, खेत सूखे पड़े हैं
नदी, तालाब, कुआँ सब सूखे हैं;
सरकारी हैंडपंपों में भी पानी नहीं है।

फसल नहीं, आमद नहीं,
सूखे खेत और बैंकों के कर्ज रह गए हैं।
नहीं! मैंने आत्महत्या नहीं की है, जिंदा हूँ!
जल बरसेगा तो अपने खेतों में हल चलाना है,
फसल उगानी है, कर्ज उतारने हैं।
अभी भूख-प्यास की लचारी है,
पशुओं को खुला छोड़ रखा है,
क्या खिलाता, कहाँ से पानी पिलाता,
परिवार के लिए ही अन्न-जल की मुश्किल है।

गलती भी हमारी है,
सरकारी झाँसे में बहक गए,
पुरखों का बनाया जल-हल रिश्ता टूट गया;
नदी, तालाब, कुएँ, सब जाने कहाँ छूट गए।
पानी निकालना तो सीखा,
पानी बचाना भूल गए।
आज धरती मईया प्यासी है,
बच्चे प्यासे हैं।

लेकिन हम हारे नहीं हैं,
हम लड़ेंगे, जरूर लड़ेंगे,
कुदरत से हाथ मिला कर,
लड़ेंगे अपने जल-हल के लिए।

[Photo Credit: Down To Earth |  Illustration: Tarique Aziz]

सूखे से बेहाल लोग और बेपरवाह सरकार

सूखा सिर्फ़ खेतों में नहीं पसरा है, हमारी संवेदनाएँ भी सच में सूख गयी हैं। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि “सरकारों का शुतुरमुर्ग-रवैया बड़े अफ़सोस की बात है”, अनायास नहीं है। देश एक ऐसी सूखा आपदा से गुजर रहा है जिसमें जवाबदेहियों का भी सूखा है।

सूखा सिर्फ़ खेतों में नहीं पसरा है, हमारी संवेदनाएँ भी सच में सूख गयी हैं। सबको पता है कि देश गंभीर सूखा से जूझ रहा है। लेकिन हम आँखें मूंदे बैठे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि “सरकारों का शुतुरमुर्ग-रवैया बड़े अफ़सोस की बात है”, अनायास नहीं है। देश एक ऐसी सूखा आपदा से गुजर रहा है जिसमें जवाबदेहियों का भी सूखा है।

आँकडों की बात करें तो देश के 13 राज्यों में,  कुल जनसंख्या के पाँचवे हिस्सा का दोगुना, यानि 54 करोड़ किसान और ग्रामीण सूखा की गिरफ्त में हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जिनके लिए सूखा लगातार दूसरे या तीसरे साल आया है। लोग पीने के पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। खाद्यान्न की कमी है। किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। भूखे-प्यासे घरेलु पशु खुला छोड़ दिए गए हैं, मर रहे हैं। खेत बंजर पड़े हैं। जीवन और जीविका में जैसे एक ठहराव आ गया है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सूखे की स्थिति भयावह है। नदी, तालाब और कुओं का पानी सूख चुका है। चापाकल (हैन्डपंप) तक सूख गए हैं।

पिछले साल 2015 के अक्टूबर में जब सूखा की आहट मिलने लगी थी तो स्थिति का जायजा लेने के लिए स्वराज अभियान के ‘जय किसान आन्दोलन’ के तहत योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में एक संवेदना यात्रा की गई थी। 2 अक्टूबर गाँधी जयंती के दिन उत्तर कर्णाटक के यादगिर से चल कर तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए हरयाणा में संवेदना यात्रा का समापन हुआ था। सूखा प्रभावित 7 राज्यों के 37 ज़िलों से होते हुए इस यात्रा ने 4700 किलोमीटर की दूरी तय की। इस संवेदना यात्रा के दौरान सूखे की भयावह स्थिति और राज्य एवं केंद्र सरकारों की निष्क्रियता खुल कर सामने आयी। यह पहली ऐसी पहल थी जिसने ग्रामीण भारत के संकट को राष्ट्रीय पटल पर रखा और इस ओर लोगों का ध्यान खींचा।

हमारे संविधान का अनुच्छेद २१ मौलिक अधिकार के रूप में ‘जीने के अधिकार’ को सुनिश्चित करता है। सूखा का सवाल ‘जीने का अधिकार’ से जुड़ा हुआ है। ग्रामीण भारत का सूखा संकट गहरा था लेकिन राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था जैसे सोई हुई थी। सरकारें अपने संवैधानिक दायित्वों से आँखें मूंदे बैठी थी। तब स्वराज अभियान ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। 14 दिसम्बर 2015 को सुप्रीम कोर्ट में सूखा राहत याचिका दायर की गई। याचिका के माध्यम से यह प्रार्थना की गई कि अदालत केंद्र सरकार एवं 12 राज्य सरकारों को सूखा प्रभावित लोगों के राहत के लिए काम करने का निर्देश दे। 16 दिसम्बर को याचिका दाखिल हुई। स्वराज अभियान की ओर से प्रशांत भूषण ने जिरह की। 4 महीने तक, लगभग 40 घंटे चली 15 सुनवाइयों में सूखा संबंधी हर पहलू पर अदालत ने जाँच की। सरकारों की जवाबदेही तय हुई और कई अवसरों पर फटकार लगी। 11 एवं 13 मई को सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आया।

सूखा राहत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस आदेश में अदालत ने स्पष्ट किया कि आपदा अधिनियम के तहत सूखा भी एक ‘आपदा’ है। सूखे को संभालने की जिम्मेदारी भले ही राज्य सरकार की है, अंतिम जिम्मेदारी निश्चित रूप से केंद्र सरकार की है। अदालत ने बार-बार इस बात की पुष्टि की है कि सरकार वित्तीय बाधा का बहाना लेकर लोगों के मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने से मुकर नहीं सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने सूखा के आकलन और घोषणा के लिए भी एक नई विधि की आधारशिला रखी। और, जैसा कि स्वराज अभियान के ‘जय किसान आन्दोलन’ के संयोजक योगेन्द्र यादव कहते हैं कि “सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला दरअसल ‘औपनिवेशिक अकाल कोड’ से ‘आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था’ की ओर प्रतिमान विस्थापन है। यह औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकल कर नागरिक अधिकारों के लिए बड़ा बदलाव है।”

कोर्ट ने केंद्र सरकार को आपदा प्रबंधन कानून 2005 के अनुसार अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने का निर्देश दिया। पिछले एक दशक से इन संवैधानिक प्रावधानों को पूरा नहीं करने पर अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि आपदा प्रबंधन कानून के अनुसार 3 महीने के अन्दर एक राष्ट्रीय आपदा शमन कोष का गठन करे, 6 महीने के अन्दर राष्ट्रीय आपदा उत्तरदायी बल और जितना जल्दी हो सके एक राष्ट्रीय आपदा योजना बने।

इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को “धन की कमी के परदे” के पीछे नहीं छिपने का आदेश देते हुए कहा कि सरकार देश के 12 राज्यों में सूखा प्रभावित लोगों के लिए व्यापक राहत प्रदान करे। सूखा प्रभावित क्षेत्र में रह रहे सारे लोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मिलने वाले लाभ के हक़दार हैं। यानि कि सूखा प्रभावित क्षेत्र के प्रत्येक घर को प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलोग्राम खाद्यान मिलना चाहिए। लाभ के लिए ‘योग्य’ या ‘अयोग्य’ घरों का वर्तमान विभेद लागू नहीं होगा। राशन कार्ड नहीं होने की स्थिति में भी किसी को खाद्यान देने से मना नहीं किया जा सकता, वैकल्पिक पहचान पत्र भी स्वीकार किया जाएगा। अदालत ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत निर्धारित निरीक्षण तंत्र को और मज़बूत करते हुए खाद्य आयुक्तों और जिला शिकायत समितियों की नियुक्ति का आदेश दिया है।

अदालत ने सरकारों को निर्देश दिया है कि सूखा प्रभावित राज्यों के स्कूलों में गर्मी की छुट्टी के दौरान भी मिड डे मील दिया जाए और मिड डे मील में पोषण पूरक के तौर पर एक अंडा या एक गिलास दूध या कोई दूसरा पौष्टिक आहार सप्ताह में 5 दिन या कम से कम 3 दिन दिया जाए। अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि मनरेगा के तहत राज्य सरकारों को पर्याप्त और समय पर फंड जारी करे ताकि काम करने वाले लोगों को समय पर भुगतान मिल सके। सुप्रीम कोर्ट 1 अगस्त को सरकार द्वारा की गयी कार्रवाईयों की समीक्षा भी करेगा।

विडंबना देखिए कि जो काम देश के चुने हुए नुमाईंदों को करना चाहिए था उसके लिए न्यायपालिका को बीच में आना पड़ा। देश की संसद और विधानसभाएँ अब भी जग जाएँ और अदालत के आदेश को इसकी मूल भावना के साथ लागू करें तो लोगों को संकट से कुछ राहत मिले।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सूखा पर ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद स्वराज अभियान का जय किसान आंदोलन इसके क्रियान्वयन पर नज़र रखने के लिए दो अहम् पहल कर रहा है। इस दिशा में एक पहल है “सूखा के प्रति कर्तव्य” (ड्राउट ड्यूटी)। देश भर के युवाओं और छात्रों से आह्वान है कि सूखा आपदा की इस लड़ाई में ‘सूखा सेनानी’ बनें और किसी एक सूखा प्रभावित गाँव में ड्राउट ड्यूटी  इंटर्नशिप के तहत एक सप्ताह का समय दें।  दूसरी पहल के रूप में स्वराज अभियान की योजना नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट्स, जल बिरादरी और एकता परिषद के साथ मिलकर 21 मई से 31 मई के बीच एक जल-हल पदयात्रा की है जो मराठवाड़ा के लातूर से बुंदेलखंड के महोबा तक जाएगी। जल-हल पदयात्रा का उद्देश्य अदालत के आदेशों को देश के अंतिम व्यक्ति तक ले जाना है ताकि वो अपने अधिकारों को समझ सकें और एक बेहतर जीवन जी सकें।

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पानी रे! पानी, तेरा रंग कैसा ?

अचानक लातूर खबरों में छा गया है। रेल से पानी पहुँचाया जा रहा है। महाराष्ट्र में जल-संकट के बनिस्बत आईपीएल आ जाता है। लातूर से ही सटे महाराष्ट्र के बीड जिले की ११ वर्षीय योगिता पानी भरते समय ही मर गई। घर के लिए पानी लाने गई योगिता के शरीर का पानी सूख गया था।

देश भर में सूखा पसरा है। गहरा जल संकट है। देश सोया था, अब जागा है। जागा है या बस कुनमुना रहा है! देश में कई सरकारे हैं केंद्र से लेकर राज्य तक। सब सोई थीं। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगी तो कोर्ट ने सरकारों को फटकारा। सरकारें हैं कि जूँ नहीं रेंगती।

अचानक लातूर खबरों में छा गया है। रेल से पानी पहुँचाया जा रहा है। महाराष्ट्र में जल-संकट के बनिस्बत आईपीएल आ जाता है। लातूर से ही सटे महाराष्ट्र के बीड जिले की ११ वर्षीय योगिता पानी भरते समय ही मर गई। घर के लिए पानी लाने गई योगिता के शरीर का पानी सूख गया था।

पिछले तीन सालों में मानसून लगातार रूठा रहा। सूखा गहराता रहा और उसका प्रभाव बद से बदतर होता रहा। सूखा अपने साथ कुपोषण लाया है। पीने का साफ पानी नहीं है तो कई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। किसानों के आत्महत्या की खबरें रोज ही आ रही हैं। आँकड़े भयावह होते जा रहे हैं। बुंदेलखंड और मराठवाड़ा सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।

सूखा पलायन भी ले आया है। रोजी-रोटी की तलाश में लोग गाँव से शहर की ओर भाग रहे हैं। शहर पहले से अटे पड़े हैं और कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। भीड़ बढ़ती जा रही है।

भारत की आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा, यानि लगभग 33 करोड़ लोग सूखा से प्रभावित हैं। 10 राज्यों में सूखा घोषित है। देश के 675 जिलों में से 256 जिले यानि कुल 2,55,923 गाँव सूखा की चपेट में हैं। ये सारे सरकारी आँकड़े हैं जो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्वराज अभियान की ओर से दायर सूखा राहत याचिका की सुनवाई में पेश किए हैं।

भारत पीने के पानी और सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का उपभोग करता है। इसमें से लगभग एक तिहाई भूजल केंद्र ‘अत्यधिक दोहन’ की श्रेणी में आते हैं। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार देश के 91 बड़े जलाशयों में मात्र 23 फीसदी पानी बचा है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी हालात और खराब होंगे।

खेती-किसानी का संकट हो या पानी का संकट समाज और सरकार के लिए सामान्य-सी बात हो गई है। अपनी गलतियों से सीखने के बजाए हम उन गलतियों को दोहराते रहते हैं।

आज जो संकट की स्थिति बनी है इसका अंदेशा पहले से था। बार-बार चेताया जा रहा था। लेकिन सरकारें न जाने किस उम्मीद में बेपरवाह बैठी थीं। अब जब संकट चौखट पर है तो सबकी आँखें खुली हैं।

मौजूदा जल संकट प्राकृतिक से ज्यादा मानव-निर्मित है। हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना भूल गए हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते जा रहे हैं। संरक्षण की भावना ही समयातित लगती है। समाज और सरकार दोनों रूप में हम उदासीन हो गए हैं।

पर्यावरण की चिंता आर्थिक सुधारों के भार में कहीं दब-सी गई है। आज के दौर में पर्यावरण की बात करना भी विकास के विरोध में समझा जाता है। न जाने हम किस तरह का विकास चाहते हैं। आज परिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को समग्र रूप में समझने की जरूरत है। दोनों का साथ चलना जरूरी है, तभी सही मायने में विकास संभव है।

अब सबकी निगाहें आने वाले मानसून पर टिकी हैं जिसके इस बार अच्छा होने का पूर्वानुमान है। संकट शायद कुछ दिनों के लिए टल जाए। लेकिन न तो हम इससे सबक लेने वाले और न ही भविष्य में दोबारा ऐसी स्थिति आने पर निपटने के लिए तैयार होंगे। कहीं पानी का दुरुपयोग जारी रहेगा तो कहीं पानी के लिए तरसते लोग होंगे। आज योगिता पानी के लिए मरी, कल कोई और होगा। मृत संवेदनाओं का दौर है!

[Photo Credit : Wikipedia]