राजनैतिक दल निर्माण की सम्भावना

14 अप्रैल 2015 को स्वराज संवाद से शुरू हुआ ‘वैकल्पिक राजनीति एवं स्वराज’ का यह सफ़र कई अहम् पड़ावों से होता हुआ अब एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव पर आ खड़ा हुआ है जहाँ से स्वराज अभियान द्वारा एक राजनैतिक दल निर्माण की सम्भावना मुकम्मल हो सकती है।

राजनीति के कई स्वरुप होते हैं। व्यक्तिगत स्तर से लेकर संगठनात्मक रूप में जाने-अनजाने हम राजनीतिक प्रक्रिया के हिस्सा होते हैं। राजनीति के बिना लोकतंत्र की परिकल्पना ही बेमानी है। राजनीति का स्वरूप सामाजिक हो, आर्थिक हो या सांस्कृतिक, किसी ना किसी रूप में राजनीति गतिमान रहती है।

स्वराज अभियान भी एक राजनीतिक संगठन है और सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों के जरिए राजनीति में दख़ल करता आया है। चाहे वो खेती-किसानी से जुड़ा मसला हो या भ्रष्टाचार से जुड़ा, शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा मामला हो या सांप्रदायिक सौहार्द एवं सद्भावना का, स्वराज अभियान मुखर होकर संघर्ष करता रहा है। देश के सामने आए बड़े एवं अहम् सवालों पर भी स्वराज अभियान ने बेबाकी से अपनी बात रखी है। सिर्फ़ चुनावी राजनीति में भागीदारी को छोड़कर स्वराज अभियान राजनीतिक संगठन का हर दायित्व निभाता रहा है।

अप्रैल 2015 में अपने गठन के साथ ही स्वराज अभियान पर राजनीतिक पार्टी बनाने का दबाव रहा है। जब भी किसी राज्य में चुनावी सरगर्मी बढ़ी, यह दबाव भी बढ़ा। लेकिन, कहते हैं न – ‘दूध का जला, छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है’। वैकल्पिक राजनीति का एक प्रयोग इसी जल्दबाजी में समझौतों की भेंट चढ़ गया। तो, स्वराज अभियान ने राजनीतिक पार्टी बनाने से पहले अपने लिए कुछ महत्वपूर्ण मापदंड तय किए।

स्वराज अभियान की राष्ट्रीय सञ्चालन समिति द्वारा 28 एवं 29 नवम्बर 2015 को गुडगाँव में आयोजित बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव था – ‘राजनैतिक दल निर्माण की कसौटियाँ और हमारी राह’। वैकल्पिक राजनीति की स्थापना के वायदे को पूरा करने के लिए स्वराज अभियान ने पारदर्शिता, जवाबदेही एवं आतंरिक लोकतंत्र का मापदंड तय किया।

पारदर्शिता एवं जवाबदेही के तहत स्वराज अभियान के सदस्यों की लिस्ट, पदाधिकारियों, सञ्चालन समिति व वर्किंग कमेटी के सदस्यों की लिस्ट, अभियान के सभी फ़ैसले, आमदनी व खर्च भी स्वराज अभियान की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जा चुका है। संगठन ने स्वेच्छा से खुद को ‘सूचना के अधिकार’ के अंतर्गत रखा है एवं जन सूचना पदाधिकारी नियुक्त किये गए हैं। साथ ही, संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर एवं उन राज्यों में, जहाँ विधिवत चुनावी प्रक्रिया पूरी कर ली गयी है और मनोनीत सदस्यों की जगह चयनित सञ्चालन समिति एवं वर्किंग कमिटी का गठन हो गया है, वहाँ अनुशासन समिति, लोकपाल एवं राज्य लोकायुक्त भी नियुक्त हो रहे हैं।

आतंरिक लोकतंत्र के तहत यह तय किया गया था कि मनोनीत की गई मौजूदा सञ्चालन समिति व वर्किंग कमेटी की जगह विधिवत चुनी व गठित की गई सञ्चालन समिति व वर्किंग कमेटी होनी चाहिए। इसके लिए 100 से ज्यादा जिलों में और कम से कम 6 राज्यों में विधिवत चुनाव प्रक्रिया पूरी करनी थी।

स्वराज अभियान का संगठन अगर इन कसौटियों पर खड़ा उतरता है तब नई चुनी व गठित की गयी राष्ट्रीय सञ्चालन समिति नए राजनीतिक संगठन के गठन के बाबत विचार कर सकती है। यदि राष्ट्रीय सञ्चालन समिति ऐसे फ़ैसले का अनुमोदन करती है तो संगठन के सभी सदस्यों के बीच रायशुमारी करवा कर इस फ़ैसले की पुष्टि करवानी होगी जिसके बाद राजनीतिक पार्टी के गठन की प्रक्रिया प्रारंभ होगी।

पारदर्शिता एवं जवाबदेही की कसौटी पर संगठन अपने दायित्वों को लगातार पूरा कर रहा है। अपेक्षित सूचनाएँ, यहाँ तक कि राष्ट्रीय सञ्चालन समिति और वर्किंग कमेटी की बैठकों में लिए गए फैसलों की जानकारी भी वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक की जा रही है। आमदनी और खर्च के ब्योरे भी सार्वजानिक किये जा रहे हैं । आतंरिक लोकतंत्र को सुनिश्चित करने के लिए संगठनात्मक चुनाव संपन्न कराये जा रहे रहे हैं। नीचे से ऊपर की ओर विधिवत चुनाव द्वारा गठित संगठनात्मक ढाँचा तैयार हो रहा है।

पिछले दो महीने से चल रहे संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया में 110 से ज्यादा जिलों में जिला कार्यसमिति एवं राज्य सञ्चालन समिति के लिए सदस्यों का चुनाव हो गया है। बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्णाटक जैसे 7 राज्यों में राज्य सञ्चालन समिति व राज्य वर्किंग कमेटी की चुनावी प्रक्रिया भी पूरी हो गयी है।

30 एवं 31 जुलाई को स्वराज अभियान का राष्ट्रीय अधिवेशन है। 30 जुलाई को नई चुनी हुई 300 सदस्यीय राष्ट्रीय सञ्चालन समिति राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव करेगी। फिर, 31 जुलाई को विभिन्न राज्यों से आए 1000 से ज्यादा चुने हुए प्रतिनिधि राजनैतिक पार्टी निर्माण के बाबत निर्णय लेंगे।

14 अप्रैल 2015 को स्वराज संवाद से शुरू हुआ ‘वैकल्पिक राजनीति एवं स्वराज’ का यह सफ़र कई अहम् पड़ावों से होता हुआ अब एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव पर आ खड़ा हुआ है जहाँ से स्वराज अभियान द्वारा एक राजनैतिक दल निर्माण की सम्भावना मुकम्मल हो सकती है।

 

सूखे से बेहाल लोग और बेपरवाह सरकार

सूखा सिर्फ़ खेतों में नहीं पसरा है, हमारी संवेदनाएँ भी सच में सूख गयी हैं। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि “सरकारों का शुतुरमुर्ग-रवैया बड़े अफ़सोस की बात है”, अनायास नहीं है। देश एक ऐसी सूखा आपदा से गुजर रहा है जिसमें जवाबदेहियों का भी सूखा है।

सूखा सिर्फ़ खेतों में नहीं पसरा है, हमारी संवेदनाएँ भी सच में सूख गयी हैं। सबको पता है कि देश गंभीर सूखा से जूझ रहा है। लेकिन हम आँखें मूंदे बैठे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि “सरकारों का शुतुरमुर्ग-रवैया बड़े अफ़सोस की बात है”, अनायास नहीं है। देश एक ऐसी सूखा आपदा से गुजर रहा है जिसमें जवाबदेहियों का भी सूखा है।

आँकडों की बात करें तो देश के 13 राज्यों में,  कुल जनसंख्या के पाँचवे हिस्सा का दोगुना, यानि 54 करोड़ किसान और ग्रामीण सूखा की गिरफ्त में हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जिनके लिए सूखा लगातार दूसरे या तीसरे साल आया है। लोग पीने के पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। खाद्यान्न की कमी है। किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। भूखे-प्यासे घरेलु पशु खुला छोड़ दिए गए हैं, मर रहे हैं। खेत बंजर पड़े हैं। जीवन और जीविका में जैसे एक ठहराव आ गया है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सूखे की स्थिति भयावह है। नदी, तालाब और कुओं का पानी सूख चुका है। चापाकल (हैन्डपंप) तक सूख गए हैं।

पिछले साल 2015 के अक्टूबर में जब सूखा की आहट मिलने लगी थी तो स्थिति का जायजा लेने के लिए स्वराज अभियान के ‘जय किसान आन्दोलन’ के तहत योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में एक संवेदना यात्रा की गई थी। 2 अक्टूबर गाँधी जयंती के दिन उत्तर कर्णाटक के यादगिर से चल कर तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए हरयाणा में संवेदना यात्रा का समापन हुआ था। सूखा प्रभावित 7 राज्यों के 37 ज़िलों से होते हुए इस यात्रा ने 4700 किलोमीटर की दूरी तय की। इस संवेदना यात्रा के दौरान सूखे की भयावह स्थिति और राज्य एवं केंद्र सरकारों की निष्क्रियता खुल कर सामने आयी। यह पहली ऐसी पहल थी जिसने ग्रामीण भारत के संकट को राष्ट्रीय पटल पर रखा और इस ओर लोगों का ध्यान खींचा।

हमारे संविधान का अनुच्छेद २१ मौलिक अधिकार के रूप में ‘जीने के अधिकार’ को सुनिश्चित करता है। सूखा का सवाल ‘जीने का अधिकार’ से जुड़ा हुआ है। ग्रामीण भारत का सूखा संकट गहरा था लेकिन राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था जैसे सोई हुई थी। सरकारें अपने संवैधानिक दायित्वों से आँखें मूंदे बैठी थी। तब स्वराज अभियान ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। 14 दिसम्बर 2015 को सुप्रीम कोर्ट में सूखा राहत याचिका दायर की गई। याचिका के माध्यम से यह प्रार्थना की गई कि अदालत केंद्र सरकार एवं 12 राज्य सरकारों को सूखा प्रभावित लोगों के राहत के लिए काम करने का निर्देश दे। 16 दिसम्बर को याचिका दाखिल हुई। स्वराज अभियान की ओर से प्रशांत भूषण ने जिरह की। 4 महीने तक, लगभग 40 घंटे चली 15 सुनवाइयों में सूखा संबंधी हर पहलू पर अदालत ने जाँच की। सरकारों की जवाबदेही तय हुई और कई अवसरों पर फटकार लगी। 11 एवं 13 मई को सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आया।

सूखा राहत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस आदेश में अदालत ने स्पष्ट किया कि आपदा अधिनियम के तहत सूखा भी एक ‘आपदा’ है। सूखे को संभालने की जिम्मेदारी भले ही राज्य सरकार की है, अंतिम जिम्मेदारी निश्चित रूप से केंद्र सरकार की है। अदालत ने बार-बार इस बात की पुष्टि की है कि सरकार वित्तीय बाधा का बहाना लेकर लोगों के मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने से मुकर नहीं सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने सूखा के आकलन और घोषणा के लिए भी एक नई विधि की आधारशिला रखी। और, जैसा कि स्वराज अभियान के ‘जय किसान आन्दोलन’ के संयोजक योगेन्द्र यादव कहते हैं कि “सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला दरअसल ‘औपनिवेशिक अकाल कोड’ से ‘आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था’ की ओर प्रतिमान विस्थापन है। यह औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकल कर नागरिक अधिकारों के लिए बड़ा बदलाव है।”

कोर्ट ने केंद्र सरकार को आपदा प्रबंधन कानून 2005 के अनुसार अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने का निर्देश दिया। पिछले एक दशक से इन संवैधानिक प्रावधानों को पूरा नहीं करने पर अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि आपदा प्रबंधन कानून के अनुसार 3 महीने के अन्दर एक राष्ट्रीय आपदा शमन कोष का गठन करे, 6 महीने के अन्दर राष्ट्रीय आपदा उत्तरदायी बल और जितना जल्दी हो सके एक राष्ट्रीय आपदा योजना बने।

इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को “धन की कमी के परदे” के पीछे नहीं छिपने का आदेश देते हुए कहा कि सरकार देश के 12 राज्यों में सूखा प्रभावित लोगों के लिए व्यापक राहत प्रदान करे। सूखा प्रभावित क्षेत्र में रह रहे सारे लोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मिलने वाले लाभ के हक़दार हैं। यानि कि सूखा प्रभावित क्षेत्र के प्रत्येक घर को प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलोग्राम खाद्यान मिलना चाहिए। लाभ के लिए ‘योग्य’ या ‘अयोग्य’ घरों का वर्तमान विभेद लागू नहीं होगा। राशन कार्ड नहीं होने की स्थिति में भी किसी को खाद्यान देने से मना नहीं किया जा सकता, वैकल्पिक पहचान पत्र भी स्वीकार किया जाएगा। अदालत ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत निर्धारित निरीक्षण तंत्र को और मज़बूत करते हुए खाद्य आयुक्तों और जिला शिकायत समितियों की नियुक्ति का आदेश दिया है।

अदालत ने सरकारों को निर्देश दिया है कि सूखा प्रभावित राज्यों के स्कूलों में गर्मी की छुट्टी के दौरान भी मिड डे मील दिया जाए और मिड डे मील में पोषण पूरक के तौर पर एक अंडा या एक गिलास दूध या कोई दूसरा पौष्टिक आहार सप्ताह में 5 दिन या कम से कम 3 दिन दिया जाए। अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि मनरेगा के तहत राज्य सरकारों को पर्याप्त और समय पर फंड जारी करे ताकि काम करने वाले लोगों को समय पर भुगतान मिल सके। सुप्रीम कोर्ट 1 अगस्त को सरकार द्वारा की गयी कार्रवाईयों की समीक्षा भी करेगा।

विडंबना देखिए कि जो काम देश के चुने हुए नुमाईंदों को करना चाहिए था उसके लिए न्यायपालिका को बीच में आना पड़ा। देश की संसद और विधानसभाएँ अब भी जग जाएँ और अदालत के आदेश को इसकी मूल भावना के साथ लागू करें तो लोगों को संकट से कुछ राहत मिले।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सूखा पर ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद स्वराज अभियान का जय किसान आंदोलन इसके क्रियान्वयन पर नज़र रखने के लिए दो अहम् पहल कर रहा है। इस दिशा में एक पहल है “सूखा के प्रति कर्तव्य” (ड्राउट ड्यूटी)। देश भर के युवाओं और छात्रों से आह्वान है कि सूखा आपदा की इस लड़ाई में ‘सूखा सेनानी’ बनें और किसी एक सूखा प्रभावित गाँव में ड्राउट ड्यूटी  इंटर्नशिप के तहत एक सप्ताह का समय दें।  दूसरी पहल के रूप में स्वराज अभियान की योजना नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट्स, जल बिरादरी और एकता परिषद के साथ मिलकर 21 मई से 31 मई के बीच एक जल-हल पदयात्रा की है जो मराठवाड़ा के लातूर से बुंदेलखंड के महोबा तक जाएगी। जल-हल पदयात्रा का उद्देश्य अदालत के आदेशों को देश के अंतिम व्यक्ति तक ले जाना है ताकि वो अपने अधिकारों को समझ सकें और एक बेहतर जीवन जी सकें।

[Photo Credit : Wikipedia]

‘जश्न-ए-आजादी’ के दिन किसानों के बीच ‘छाय पर चर्चा’

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते आए हैं। आज का दिन आजादी के उत्सव का दिन है, जश्न का दिन है, करोड़ों भारतियों में नई उम्मीद का दिन है। प्रधानमंत्री जब भाषण देते हैं तो पूरा देश ध्यान से सुनता है। अपने भाषण में वो देश के सामने खड़ी चुनौतियों को सामने रखते हैं और उनका सामना करने की नई दृष्टि का सूत्रपात करते हैं।

आज हमारा देश एक गंभीर कृषि संकट के दौर से गुजर रहा है। पिछले दो दशकों में ३ लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आंकड़ों को समझें तो लगभग हर ३० मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है। पिछला साल तो किसानों के लिए और दुरूह गुजरा। फसल का नुकसान, कुछ फसल की किमतों में गिरावट, यूरिया का संकट, किसान तो हलकान ही रहा।

किसानों की आवाज संसद तक पहुंचती ही नहीं। किसान बस दो ही मौकों पर याद किए जाते हैं – एक, जब उनका वोट लेना हो और दूसरा, जब उनकी जमीन छिन लेनी हो। जब वोट लेने थे तो मोदी जी ने किसानों के हक में बड़ी-बड़ी बातें कहीं, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद ‘भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश’ ले आए। चुनाव के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के रूप में अतिरिक्त पचास प्रतिशत का वादा किया, लेकिन सरकार बनते ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे आए कि यह करना संभव नहीं है।

खैर, किसान फिर भी उम्मीद का दामन थामे हुए है। इसी उम्मीद में कुछ किसान गुडगाँव जिले के एक गांव ‘धुनैला’ में एकत्रित थे। ‘स्वराज अभियान’ के ‘जय किसान आंदोलन’ ने ‘छाय पर चर्चा’ कार्यक्रम आयोजित किया था। उत्तर हरियाणा में छाछ को छाय कहते हैं, तो यह ‘छाय पर चर्चा’ थी। मकसद था, किसानों के साथ बैठ कर प्रधानमंत्री का भाषण सुनना और उस पर चर्चा करना। इस चर्चा में ‘जय किसान आंदोलन’ का नेतृत्व कर रहे योगेन्द्र यादव भी मौजूद थे। उम्मीद थी, प्रधानमंत्री किसान-आत्महत्या की चुनौती पर अपनी बात रखेंगे और कृषि संकट से उबरने का कुछ ठोस उपाय देश के सामने रखेंगे। लेकिन किसानों को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी।

प्रधानमंत्री ने किसानों से संबंधित दो मुख्य बातें रखीं। ‘कृषि मंत्रालय’ का नाम बदलकर ‘कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय’ करने की बात की और ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ के तहत ५०,००० करोड़ खर्च करने की पिछले साल की घोषणा को दोहराया। नाम बदलने से काम हो जाने की उम्मीद रखना तो अपनी समझ का मखौल उड़ाना है। रही बात ५०,००० करोड़ के घोषणा की, तो पिछले साल के बजट में आवंटित हुआ सिर्फ १००० करोड़, उसमें भी खर्च हुआ मात्र ४ करोड़। और तो और, ‘राष्ट्रीय कृषि विकास योजना’ का बजट ९,८६४ करोड़ से घटा कर लगभग ४,५०० करोड़ कर दिया गया। इसी से पता चलता है कि मोदी सरकार कृषि संकट और किसानों की समस्याओं को लेकर कितनी गंभीर है।

‘छाय पर चर्चा’ में शामिल किसान भी काफी मायूस दिखे। गांव के किसान बताते हैं कि फसल बर्बाद होने पर मुआवजा वितरण की प्रक्रिया भी प्रभावशाली लोगों के पक्ष में ही है। जिनके खेतों में खरपतवार थी, वो रणनीतिक रसूख के चलते पूरा मुआवजा ले गए। जिस किसान की पूरी फसल बर्बाद हो गई, उसे २५% का नुकसान घोषित कर दिया। हाईब्रिड बीजों पर बहु-राष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार होने की वजह से बहुत महंगा बेचते हैं जिससे किसान बीज खरीद नहीं पाते, इससे फसल की उत्पादकता पर असर पड़ता है। कुछ किसानों ने बिजली की अनुपलब्धता की बात कही। वहीं कुछ किसान जो भूमि-अधिग्रहण के पीड़ित हैं उन्हें भी प्रधानमंत्री के भाषण से निराशा ही हाथ लगी।

दरअसल किसान, खेती, गांव, ये सब किसी की प्राथमिकता में नहीं हैं। इनकी तरफ कोई देखना ही नहीं चाहता। किसानों की आत्महत्या अब चिंता का विषय नहीं, अखबार के किसी कोने में छपे महज कुछ आंकड़े हैं। हम भूल रहे हैं कि आज का कृषि संकट, कल का खाद्य संकट है। सरकार की योजनाओं, घोषणाओं पर नजर रखना जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। ‘जश्न-ए-आजादी’ के साथ-साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान रखना और देश के राजनीतिक नेतृत्व को याद दिलाते रहना भी जरूरी है। तभी देश आगे बढ़ेगा, खुशहाल बनेगा।

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

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जंतर मंतर पर ‘हल सत्याग्रह’ और मोदी सरकार का अलोकतांत्रिक एवं अमानवीय चेहरा

कल रात को जंतर मंतर पर चल रहे किसानों के अनूठे सत्याग्रह ‘हल सत्याग्रह’ के बारे में लिख रहा था। लिखना खत्म भी नहीं हुआ था कि दिल्ली पुलिस द्वारा अलोकतांत्रिक एवं अमानवीय कार्यवाई की ख़बरें आने लगी। सत्याग्रहियों को हिरासत में ले लिया गया था। लोकतंत्र के अनूठे प्रयोग के दिन को हमारी सरकार ने कुछ ही घंटों में लोकतंत्र को शर्मसार कर देने वाली रात में बदल दिया।

आधी रात को पुलिस कार्यवाई के पूर्व

हल सत्याग्रह! ये क्या बला है? यही सोच रहे हैं न आप। जंतर मंतर पर जब आप जाएँगे तो देखेंगे कि ८-१० लोग अपने कंधों पर एक भारी भरकम लोहे का ‘हल’, जिसका वजन १०० किलो से भी ज्यादा होगा, उठाए हुए हैं। एक कंधा थकता है तो दूसरा थाम लेता है। ये कौन लोग हैं जो धूप में, बारिश में, दिन में, रात में, २४ घंटे यह कठिन तप कर रहे हैं? ये हमारे देश के किसान हैं! दरअसल यह ‘हल सत्याग्रह’ किसानों की आवाज़ को देश की संसद तक पहुंचाने का माध्यम है। इन सत्याग्रहियों ने संकल्प लिया है – अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ किसान की लड़ाई के प्रतीक इस ‘हल’ को वो नीचे नहीं रखेंगे, बारी-बारी से अपने कंधों पर उठाए रखेंगे। यही ‘हल सत्याग्रह’ है।

‘स्वराज अभियान’ पिछले कुछ महीनों से, योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में ‘जय किसान आंदोलन’ चला रहा है। इस आन्दोलन के पहले चरण में कार्यकर्ता गांव – गांव गए, किसान से बात की, उनके दुख-दर्द को समझा, उनके मुद्दों को मुख्य धारा की राजनीति, सोशल मीडिया और शहरी युवा से जोड़ा। इस देश व्यापी मुहिम में गांव की मिट्टी कलश में इकट्ठा की जाने लगी। तेलांगना हो या उड़ीसा, कर्णाटक हो या पश्चिम बंगाल, जम्मू-काश्मीर हो या केरल, तमिलनाडु हो गुजरात, महाराष्ट्र हो या आंध्र प्रदेश, बिहार, यूपी, पंजाब, हरियाणा – देश के कोने-कोने से किसान अपने गांव की मिट्टी कलश में लेकर दिल्ली आने की तैयारी करने लगे।

फिर आंदोलन के दूसरे चरण में, १ अगस्त को पंजाब के ठीक्रिवाल (बरनाला) से योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में शुरू हुआ – ‘जय किसान ट्रैक्टर मार्च’। पंजाब से चली ९ दिनों की यात्रा उत्तर-प्रदेश, हरियाणा होते हुए करीब ६४५ किमी की दूरी तय कर, अगस्त क्रांति के दिन यानि ९ अगस्त को दिल्ली पहुंची। यात्रा के दौरान जगह-जगह किसानों ने मार्च का स्वागत किया और अपने गांव की मिट्टी भेंट की।

इसी बीच दिल्ली में ‘रेस कोर्स का काला सच’ भी लोगों के सामने आया कि किस तरह प्रधानमंत्री की नाक के नीचे घुड़दौड़ के नाम पर अवैध रूप से जुए का अड्डा चलता है। प्रधानमंत्री जी को इस से संबंधित ‘पब्लिक नोटिस’ देकर कहा गया कि कृपया इसे खाली करवाएं। चूँकि रेस कोर्स की जमीन ‘जबरन भूमि अधिग्रहण’ का प्रतीक है, तो क्यों न वहां पर जुल्म सहते, शहीद हुए और आत्महत्या को मजबूर किसानों की याद में एक स्मारक बनाया जाए! इससे कम-से-कम देश को यह संदेश तो जाएगा की देश की संसद किसानों का दुख दर्द समझती है और उसे लेकर कर संवेदनशील है। और, यदि प्रधानमंत्री जी कुछ नहीं करते तो किसान खुद रेस कोर्स में स्मारक की नींव रखेगा।

१० अगस्त को जंतर मंतर पर ‘जय किसान रैली’ हुई, जिसमें देश भर से किसान और किसान संगठनों ने भाग लिया। इस रैली में अपनी चार मुख्य मांगों – १) भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस हो, २) किसानों को न्यूनतम आय की गारंटी का कानून बने, ३) मुआवजा उचित, समय पर और बिना भ्रष्टाचार के मिले, साथ ही ४) भूमिहीन मजदूरों को जमीन दी जाए – के अलावा यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ऊंचा सुनने वाली दिल्ली की कानों तक किसानों की आवाज़ पहुंचाने और किसान के मान-सम्मान की रक्षा के रूप में, प्रतीकात्मक रूप से रेस कोर्स की जमीन पर किसान स्मारक की स्थापना की जाए। इसके लिए लोहे का एक भारी भरकम हल (रूपक) लाया गया जिसे कन्धों पर लेकर, आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवा महिलाओं के नेतृत्व में, मार्च शान्तिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ा। पुलिस ने रास्ता रोक दिया तो फिर शुरू हुआ ‘हल सत्याग्रह’।

आधी रात को पुलिस कार्यवाई के बाद

रात गहराने लगी, कंधे बदलते रहे, ‘हल सत्याग्रह’ जारी रहा! ‘हल’ का बोझ ‘सत्याग्रहियों’ ने उठा रखा था लेकिन माथा सत्ता का झुकता जा रहा था। सत्ता का चरित्र नंगा हो रहा था। किसान की आवाज़ गूंजने लगी थी। फिर क्या था, लोकतंत्र और मानवता को ताक पे रखते हुए, आधी रात को पुलिस की कार्यवाई शुरू हो गयी। मौलिक नागिरक अधिकार को भुला दिया गया।

किसानों की आस के पवित्र प्रतीक ‘हल’ को जिसे कार्यकर्ताओं ने कंधे पर उठा रखे थे, छीन कर नीचे रख दिया गया। मिट्टी के कलश को तोड़ दिया गया। मंच को तोड़ डाला गया। ‘सत्याग्रहियों’ को घसीट कर, धक्कामुक्की करते हुए, हिरासत में ले लिया गया। ‘हल सत्याग्रह’  नेतृत्व कर रहे ‘स्वराज अभियान’ के ‘जय किसान आंदोलन’ के संयोजक योगेन्द्र यादव को भी अमानवीय ढंग से घसीटते हुए, बिना कोई कारण बताये थाने ले जाया गया। हिरासत में सबके मोबाइल फोन रख लिए गए।

बाद में संसद मार्ग थाना मिलने गए प्रशांत भूषण को भी मिलने नहीं दिया गया और न ही हिरासत में लिए जाने का कारण बताया गया। यह मौलिक नागरिक अधिकार का हनन है। लोकतंत्र के मुह पर जोरदार तमाचा है, जिसकी अनुगूंज किसी भी जिम्मेदार और सजग नागरिक के लिए नाकाबिले बर्दाश्त है, निंदनीय है, शर्मनाक है!

किसान की आवाज़ को दबाने के लिए सरकार इतना असंवेदनशील कैसे हो सकती है? सत्ता इतनी हताश और बौखलाई क्यों है? क्योंकि ‘रेस कोर्स का काल सच’ सामने आने के बाद, विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण के जरिए  किसानों की जमीन लूटने के खेल का पर्दाफाश हो गया है। आज किसान अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई लड़ रहा है, उसके लिए जीवन – मरण का प्रश्न है। और, केंद्र में बैठी सरकार मखौल उड़ा रही है। किसान आंदोलन के ‘सत्याग्रहियों’ पर अलोकतांत्रिक और अमानवीय कार्यवाई कर रही है। क्या यही है हमारा महान लोकतान्त्रिक देश जिसमे शांतिपूर्ण रूप से किसानों की आवाज़ उठाना भी गुनाह है!

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‘जय किसान’ आंदोलन – मिट्टी का मान, देश की शान

देश कृषि-संकट से गुजर रहा है। किसान आँकड़ों में तब्दील हो रहे, किसानी अभिशाप बनती जा रही है। क़ुदरत की मार, सरकार की बेरुख़ी और बची-खुची ज़मीन पर लालच भरी निगाहें। कमाई हो नहीं रही, ज़मीन छिनी जा रही, खेत बर्बाद हो रहे, गाँव उजड़ रहे हैं। देश का अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर है। देश चुप है! यह चुप्पी कब तक? सवाल सिर्फ किसान का नहीं है, देश के भविष्य का है।

स्वराज अभियान किसानों की लड़ाई में उनके साथ खड़ा है। यह लड़ाई सिर्फ किसान की नहीं, पूरे देश की है। ‘जय किसान’ आंदोलन भारतीय किसानों की गरिमा को वापस बहाल करने का एक सकारात्मक एवं रचनात्मक आंदोलन है। यह आंदोलन है किसानों की ज़मीन और जीविका की रक्षा का। यह आंदोलन है खेती को आर्थिक रूप से व्यवहारिक और पर्यावरण की दृष्टि से वहनीय बनाने का। ‘जय किसान’ आंदोलन विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों के किसानों को एकजुट करेगा और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ेगा। यह आंदोलन शहरी भारत को किसान और किसानी से जोड़ेगा, वैकल्पिक कृषि को आगे बढ़ाएगा।

‘जय किसान’ आंदोलन की चाहत है कि सभी किसानों के लिए – पर्याप्त आय, बीमा और सामाजिक सुरक्षा हो; प्राकृतिक संपदाओं पर सामुदायिक अधिकार हो; पर्याप्त, पौष्टिक और सुरक्षित भोजन मिले; साथ ही, पारिस्थितिकी वहनीय खेती को विकसित किया जाए।

‘जय किसान’ आंदोलन के निकट लक्ष्य हैं –

  • किसानों के मुद्दों की प्रमुखता: संसदीय विमर्शों और राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोपों से परे, किसानों के मूल मुद्दों को मुख्य धारा में लाना।
  • किसानों के मुद्दों का विस्तार: भूमि-अधिग्रहण से आगे, किसानों की आय और वहनीय कृषि के मुद्दों को भी शामिल करना।
  • सत्ता पर दबाव: मौजूदा कृषि-संकट पर ध्यानाकर्षण के लिए संसद, राजनीतिक दलों और मीडिया पर दबाव बनाना।

‘जय किसान’ आंदोलन के दूरगामी लक्ष्य हैं –

  • विभिन्न किसान आंदोलनों के बीच एकता क़ायम करना और छोटे एवं दल-हीन आंदोलनों को एकजुट करना।
  • किसान के विभिन्न वर्गों के बीच सेतु बनाना, सबको एक मंच पर लाना।
  • किसानों के अलावा दूसरे वर्गों, विशेषकर शहरी युवा मध्यम वर्ग में ग्रामीण भारत और किसान के प्रति संवेदनशीलता और जागरूकता पैदा करना।
  • किसान के स्वाभिमान को मज़बूत करना।

‘जय किसान’ आंदोलन की सरकार से तीन मुख्य माँगें हैं – 

  1. मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण अधिनियम २०१३ में संशोधन को वापस लिया जाए।
  2. किसानों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी का क़ानून बने।
  3. फ़सल बर्बाद होने पर उचित एवं त्वरित मुआवज़ा मिले।

‘जय किसान’ आंदोलन के पहले भाग में ६ सप्ताह का जनसंपर्क कार्यक्रम है जो १३ जून से चल रहा है और ३१ जुलाई तक पूरे देश में चलेगा। सभी कार्यकर्ता अपने – अपने क्षेत्रों में लोगों से मिल रहे हैं, घर – घर जा रहे हैं। गाँवों की मिट्टी कलश में इकठ्ठा की जा रही है। सोशल मीडिया और मिस्डकाल कैंपेन के जरिए लोगों को जोड़ा जा रहा है। दूसरे किसान संगठनों के साथ समन्वय हो रहा है। शहरी युवा को जोड़ने के लिए इंटर्नशिप प्रोग्राम चलाया जा रहा है। सेमिनार और पब्लिक मीटिंग आयोजित की जा रही हैं।

आंदोलन के दूसरे भाग में १ अगस्त से १० अगस्त तक ‘जय किसान यात्रा’ होगी, ‘ट्रैक्टर मार्च’ निकाला जाएगा। यह यात्रा संगरूर (पंजाब) से शुरू होकर हरियाणा होते हुए, पश्चिमी यूपी और राजस्थान के हिस्सों को छूते हुए दिल्ली पहुँचेगी। गाँव – गाँव से इकठ्ठा किए गए मिट्टी के कलश लिए अन्य राज्यों के जत्थे इस यात्रा से जुड़ते चलेंगे। ये ‘मिट्टी-कलश’ संसद को मिट्टी का मोल याद दिलाने लिए हैं, मिट्टी का मान रखने के लिए हैं।

‘जय किसान’ आंदोलन सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। स्वराज अभियान आगे इस आंदोलन को भूमि अधिग्रहण जैसे तत्कालिक मुद्दों से आगे खेती को आर्थिक रूप से व्यवहारिक और पारिस्थितिकी वहनीय बनाने की दिशा में केंद्रित करेगा। ‘स्वराज अभियान’ का ‘जय किसान’ आंदोलन देश की ‘मिट्टी का मान’ का आंदोलन है।

SA - Jai Kisan Andolan Backdrop (8x4) - Hindi